BHIC- 132. Bharat ka itihaas. Most important question answer. भारत का इतिहास.
( परिचय )
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समुद्रगुप्त द्वारा गुप्त साम्राज्य के विस्तार के लिए किए गए प्रयासों पर चर्चा कीजिए ?0
Discuss the efforts made by samudragupta for the expansion of the gupta Empire?
गुप्त साम्राज्य का उदय चौथी से छठी शताब्दी में हुआ
यह एक महान साम्राज्य के रूप में उभरा था
साम्राज्य के उद्भव पर जाति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद मिलते हैं।
कई इतिहासकार इन्हें ब्राह्मण, तो कई इन वैश्य जाति संबंध जोड़ते हैं।
गुप्त साम्राज्य के संस्थापक श्री गुप्त थे परंतु इन्हें केवल नाम मात्र संस्थापक भी कहा जा सकता है।
चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य के वास्तविक संस्थापक व पहले शक्तिशाली शासक के रूप में उभर कर सामने आए। चंद्रगुप्त प्रथम के बाद गुप्त साम्राज्य के विकास में दूसरा बड़ा योगदान समुद्रगुप्त का था।
समुद्रगुप्त के हाथ में गुप्त साम्राज्य की बागडोर 335-375 AD तक रही
जिसमें समुद्रगुप्त ने साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत से लेकर दक्षिण में श्री लंका तक किया।
समुद्रगुप्त के बारे में जानकारी का मुख्य स्रोत –
हरिषेण समुद्रगुप्त के दरबारी कवि थे
हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है
प्रयाग प्रशस्ति में बताया गया है कि किस प्रकार समुद्रगुप्त ने दक्षिण में 12 क्षेत्रों और उत्तर में 9 क्षेत्रों को जीता। प्रयाग प्रशस्ति वर्तमान में इलाहाबाद ( प्रयागराज ) में स्थित है।
समुद्रगुप्त द्वारा गुप्त साम्राज्य के विस्तार के लिए किए गए प्रयास -
उत्तर भारत में विजय अभियान--
- समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में नौ बड़े राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
- वाकाटक राज्य, मतिल राज्य, नागवंश, पुष्पकरण, नागसेन, रामनगर ,नागवंशी असम राकी , कोट वंश थे। कोट वंश के राजाओं ने समुद्रगुप्त के खिलाफ संघ बनाकर उसे हराने का पूरा प्रयास किया परंतु असफल रहे।
- नौ राज्यों को हराकर समुद्रगुप्त ने उत्तर में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
मध्य भारत में विजय--
- मध्य भारत में प्रमुख रूप से आदिवासी समुदाय का राज था।
- इन आदिवासी समुदाय को हराकर समुद्रगुप्त ने इनसे कर ( Tax ) लेना प्रारंभ कर दिया।
- यह समुदाय विशेष मौके पर उपहार व आवश्यकता पड़ने पर समुद्रगुप्त को सैनिक सहायता भी प्रदान करते थे।
दक्षिण भारत में विजय अभियान--
- हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ती से हमें यह ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में समुद्रगुप्त ने बारह क्षेत्रों को जीत लिया और विजय का परचम लहराया
- इसके अलावा श्रीलंका के शक ओर सीहल तक जा पहुंचा।
- दक्षिण भारत राजधानी से दूर होने के कारण समुंद्रगुप्त ने केवल इन राज्यों से कर ( Tax ) इकट्ठा किया।
गणतांत्रिक जातियों का विलय--
- उत्तर पश्चिमी भारत में पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कई स्वतंत्र जातियां अपना शासन करती थी परंतु समुद्रगुप्त ने इन्हें भी विजय कर अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया।
- इन जातियों में प्रमुख नाम मालवा, अमीर ,काक, मुद्रक, सकानिक आदि है।
समुद्रगुप्त ने श्रीलंका से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये -
- समुद्रगुप्त ने विदेशी शक्तियों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए। गुप्त साम्राज्य की गरुण की मूर्ति से अंकित मुद्रा श्रीलंका ने स्वीकार की।
- समुन्द्र्गुप्त धर्मनिरपेक्षता की नीति पर विश्वास रखता था इसीलिए श्रीलंका के राजा ने अपना राजदूत उसके दरबार में भेजा जो बौद्ध मंदिर स्थापित करने की अनुमति लेने गया जिसे समुद्रगुप्त द्वारा स्वीकार भी किया गया।
- इस प्रकार हम देख सकते हैं कि दोनों राज्यों में मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित थे
अश्वमेध यज्ञ-
- साम्राज्य के विस्तार में अश्वमेध यज्ञ का भी बड़ा योगदान रहा।
- अश्वमेध यज्ञ एक बड़ा सम्राट ही करवाता था। समुंद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ करवाना यह साक्ष्य देता है कि वह अपने समय में एक विशाल साम्राज्य का राजा था जिसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली।
सोने के सिक्के का प्रचलन -
- अश्वमेध यज्ञ के बाद समुद्रगुप्त द्वारा सोने के सिक्कों का प्रचलन भी किया गया।
- जिसने उसकी ख्याति में चार चांद लगा दिए।
भारत का नेपोलियन की उपाधि
- समुद्रगुप्त की विजय अभियानों से यह स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त एक वीर योद्धा था।
- विंसेंट स्मिथ स्नेह समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन की उपाधि भी दी है।
- यह उपाधि गुप्त साम्राज्य के विस्तार के कारण समुद्रगुप्त को प्रदान की गई।
- इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि समुद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य के विस्तार उत्तर से दक्षिण तक किया। समुद्रगुप्त गुप्त साम्राज्य का एक प्रमुख शासक के रूप में सामने आया। समुद्रगुप्त द्वारा अपने विजय अभियानों से गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया।
- दूरवर्ती क्षेत्र जो विजय अभियान में जीते गए उनसे कर इकट्ठा करके गुप्त साम्राज्य को आर्थिक रूप से परिपूर्ण किया।
- वीर योद्धा होने के बाद भी समुद्रगुप्त की धर्मनिरपेक्ष नीति ने सभी के मन में उसके लिए आदर बनाए रखा। समुद्रगुप्त कला प्रेमियों में भी गिना जाता है।
गुप्तोत्तर काल में आर्थिक संरचना पर चर्चा कीजिए?
Discuss the economic structure in the post- Gupta period?
गुप्त साम्राज्य समुद्रगुप्त के समय अपनी चरम सीमा पर था। लेकिन समुद्रगुप्त के बाद के शासक साम्राज्य को और ऊंचाइयों तक ले जाने में सफल ना हो सके जिस करण गुप्त साम्राज्य धीरे-धीरे कमजोर होने लगा था ।
उत्तर गुप्त काल से ही अर्थव्यवस्था दीमक की भांति अंदर ही अंदर साम्राज्य को खोखला करती गई जो आगे चलकर साम्राज्य के पतन का कारण भी बनी।
गुप्तोत्तर काल में आर्थिक संरचना-
गुप्तोत्तर व्यापार का ह्रास -
- भारतीय व्यापारियों के लिए अरब एवं ईरानी व्यापारी बड़े प्रतियोगी के रूप में सामने आए।
- हुणो के आक्रमण के कारण मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के साथ व्यापार के संबंध भी समाप्त हुए।
- धीरे-धीरे लोगों ने कीड़ों से रेशम पैदा करने की कला भी सीख ली जिससे रेशम के व्यापार पर भी असर पड़ा। व्यापार का ह्रास केवल विदेशी व्यापार तक सीमित ना रहा। समुंद्र तटीय नगरों तथा दूरदराज के नगरों के बीच संपर्क कमजोर पड़ जाने के कारण भी आंतरिक व्यापार का पतन हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं कि आवश्यक वस्तुएं जैसे नमक, लोहे और शिल्प वस्तुएं आदि का व्यापार नहीं था। बहुमूल्य वस्तुएं ,हाथी दांत आदि का व्यापार चलता रहा। परंतु बाद के समय में संगठित व्यापार का स्थान घुमक्कड़ और छोटी सौदागरों ने अपने हाथ में ले लिया था।
गुप्तोत्तर सिक्कों की कमी –
- इतिहासकारों ने यह पाया कि प्रारंभिक समय में सोने और चांदी के सिक्कों की संख्या काफी मात्रा में थी परंतु समय के साथ यह मात्रा घटती चली गई। कुषाण एवं गुप्त काल में सोने के सिक्के अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। गुप्त काल के मात्रा में कुषाण और हर्षवर्धन के समय में सोने के सिक्के मे सोने का अनुपात बहुत कम पाया गया है। इस प्रकार लगातार सिक्कों की कमी से अर्थव्यवस्था सही राह पर नहीं चल सकी। व्यापार की ह्रास हो रहा था
- उच्च अधिकारियों को नगद धन का भुगतान करने के स्थान पर भूमि अनुदान की परंपरा ने सिक्कों की आवश्यकता को पूर्ण रूप से खत्म कर दिया।
- अब मुद्रा का स्थान , वस्तु विनिमय एवं कौड़ियों ने ले लिया।
गुप्तोत्तर नगरों का ह्रास –
- व्यापार का ह्रास, सिक्कों की कमी आदि कारणों से जो नगर कुषाण काल से दक्कन में सातवाहन शासक काल तक जुड़े थे उनका अब ह्रास होने लगा था।
- यह नगरों का ह्रास उत्तर और दक्षिण दोनों क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
- संघौल, हस्तिनापुर, मथुरा, कौशांबी ,तमलुक, सौख अंतरजिखेड़ा आदि के उत्खनन से प्रकट है कि गंगा के ऊपरी तथा मध्य मैदानों में नगरों का ह्रास होना प्रारंभ हो चुका था।
- छठी सदी ई तक के अभिलेखों एवं मोहरों में नगरीय जीवन में कारीगरों, दस्तकारों तथा व्यापारियों का महत्व का उल्लेख हमें देखने को मिलता है।
- नगरीय जीवन का जितना सजीव एवं रोमांचक चित्रण वात्सायन द्वारा रचित कामसूत्र में किया गया है
- उत्तर गुप्त काल के साहित्य - जैसे कि दामोदर गुप्त की रचना में उतना सजीव चित्रण देखने को नहीं मिलता
- इससे इतिहासकार अनुमान लगाते हैं कि शहरों के साथ ही नगरीय जीवन का ह्रास हुआ।
- इसका अर्थ यह नहीं कि सभी बस्तियां ग्रामीण बस्तियां हो चली थी।
- कुछ बस्तियां सैन्य दुर्ग ,धार्मिक स्थल तथा तीर्थ स्थल के रूप में उभर कर सामने आई जो बाद के समय में राजधानी बनकर उभरी।
राजकोष में धन का अभाव –
- सिक्कों की कमी के साथ-साथ राजकोष के धन में भी कमी देखने को मिली
- इसका प्रमुख कारण बड़ी मात्रा में कृषि से ना आने वाला कर ( tax) था।
- उत्तर गुप्त काल में कृषि पर मार पड़ी जिससे धन की भी कमी हुई।
किसानों पर बोझ
- पौराणिक काल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है
- कृषि भारत के अर्थव्यवस्था में एक मूलभूत आधार है।
- लगातार कृषकों पर अत्यधिक करो (tax) कि संख्या लादे जाने से कृषि अर्थव्यवस्था डगमगा गई। पल्लव शासकों के साक्ष्यों में करो की संख्या अठारह से बीस बताई गई है
- वही आगे चलकर यह संख्या और अधिक पाई जाती है।
- इसके अलावा जमींदार वर्ग की उत्पत्ति भी किसानों पर मार की तरह पड़ी।
- जमींदार वर्ग की उत्पत्ति से किसानों का शोषण और अधिक प्रबल हो गया।
- इस प्रकार देखा जा सकता है कि गुप्तोत्तर काल में किस प्रकार आर्थिक संरचना धीरे-धीरे अपने स्तर से नीचे जाने लगी।
गुप्त काल के बाद की समय अवधि में बदलती हुई सामाजिक संरचना का एक विश्लेषणात्मक विवरण दीजिए?
Give an analytical account of the changing social structure in the post Gupta period?
गुप्त काल के पश्चात सामाजिक संरचना में बड़े- बड़े बदलाव देखने को मिलते हैं।
असमान भूमि के बंटवारे ने ऐसे वर्ग को पैदा किया कि वह वर्ण पर आधारित सामाजिक स्तरों को लांघ गए। बहुत सी नई जातियों का उद्भव हुआ।
नई जातियों की बढ़ती संख्या ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, कार्य स्थलों एवं शुद्र को प्रभावित किया।
गुप्त काल के बाद सामाजिक संरचना –
जमीदार और किसान वर्ग -
- इस समय जमींदारों के ऐसे वर्ग का उद्भव हुआ जो किसानों से भिन्न वर्ग था।
- जमींदारों को उच्च वर्ग में राजा, सामंत, मंडलेश्वर, महासामंत, कहा जाता था।
- राजा ने भी भारी-भरकम उपाधियां प्रदान करके इन्हें भूमि का स्वामित्व दिया तथा इनकी प्रभुता को बढ़ाया।
- किसान वर्ग भी स्वयं में कोई एक रूप समुदाय नहीं था। उनको कृषक, कृषि वाला , किसान आदि अन्य नामों से पहचाना जाता था।
- इन नामों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका भूमि पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था।
- किसानों का वर्गीकरण भूमि जोतने वाला, निर्भर किसान, बटाईदार, खेतिहर मजदूर, आधार पर किया जाता था।
जातियों में विभिनता-
- एक ही वर्ण के अंतर्गत बहुत सी जातियां हुआ करती थी
- जिसके कारण समाज हजारों जातियों में उप जातियों में विघटन हो गया।
1) ब्राह्मण -
- ब्राह्मण के बीच भी जातियों की संख्या कम नहीं थी। राजकाज के ब्राह्मण समाज में अधिक विशेष अधिकार वाले होते थे, साधारण ब्राह्मण की महानता कम थी। कुछ ब्राह्मण शारीरिक श्रम को महत्वपूर्ण मानते थे तो वहीं कुछ ब्राह्मण शारीरिक श्रम की अवहेलना करते थे।
- ब्राह्मणों के भीतर भी बहुत सी उप जातियां बनती चली गई।
2) क्षत्रिय -
- क्षत्रियों के बीच जाति का कारण स्थानीय कबीलों के बीच शासन तथा विदेशी जाति गुटों का राजनीतिक शक्ति के साथ समाज की मुख्यधारा में मिल जाना था। विदेशी जातीय गुटों में शकों, हूणों आदि को वर्ण व्यवस्था में समाहित करते हुए उनको दूसरी श्रेणी का क्षत्रिय बना दिया गया।
- इस प्रकार क्षत्रिय वर्ग में भी जाति को लेकर बहुत से असमानता है देखने को मिली।
3 ) शुद्र -
- गुप्त और उत्तर गुप्त काल में असमान आर्थिक शक्ति के संसाधन के साथ-साथ छोटे कृषक जातियां, धनी किसान, बटाईदार तथा कारीगर जातियां भी शुद्र वर्ण में शामिल हो गई। किसान गुटों को ब्राह्मण समाज ने शूद्र के रूप में ही शामिल किया जिसके परिणामस्वरूप शूद्रों की संख्या तथा उनकी जातियों में काफी वृद्धि हुई।
कार्यस्थल का विकास-
- भूमि अनुदान के फलस्वरुप भूमि राजस्व तथा भूमि का हस्तांतरण आदि कार्य सामने आए
- जिसके फलस्वरूप एक ऐसी व्यक्ति की आवश्यकता महसूस हुई जो इन कार्यों को सफलतापूर्वक संभाल सके। प्रारंभ में यह कार्य केवल उच्च वर्ग के पढ़े-लिखे लोग किया करते थे। परंतु समय के साथ इनकी भर्तियां कुछ अन्य वर्गों के लिए भी कराई जाने लगी
- जो वर्ग बाद में मुनीम रूप में आगे चलकर प्रसिद्ध हुए।
अछूत -
- अपवित्र या अछूत जातियों का वर्णन इतिहासकारों को प्रारंभ में बहुत कम संख्या में देखने को मिलता है परंतु समय के साथ - साथ इनकी संख्या बढ़ती चली गई। तीसरी सदी ई के आसपास से अछूत परंपरा ने जोर पकड़ना प्रारंभ किया। गुप्त काल में धर्मशास्त्र का लेखक कात्यायन ऐसा प्रथम लेखक था जिसने अछूत के लिए अस्पृश्य शब्द का प्रयोग किया।
- शिकारियों, मछुआरों, जल्लादों , कसाईयों को अछूतों की श्रेणी में शामिल किया गया।
- कालिदास तथा फाहियान आदि लेखकों ने अपनी रचनाओं में समाज पर लगाए गए इनके प्रतिबंधों का वर्णन किया है। चांडालों का भी एक भाग अछूतों के अंतर्गत आता था। ब्राह्मणों और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अछूत जातियां पिछड़े आदिवासी थे यह ब्राह्मणीय पद्धति को स्वीकार नहीं करते थे इसलिए इन्हें समाज से वंचित दूर गांव में बसाया जाता था।
दस्तकारी और जातियां -
- नगरीय केंद्रों के पतन के फलस्वरुप दस्तकारो की महत्वता कम हुई। स्वर्णकार, मालाकार, चित्रकार जातियां दस्तकारो में उच्च श्रेणी पर आ पहुंची तथा वही जुलाहे, रंगदार, दर्जी ,नाई ,जूतों का निर्माण करने वाला ,लोहार, धोबी अन्य को अछूतों की श्रेणी में डाल दिया गया।
- इस प्रकार गुप्त काल के बाद समाज में परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिससे बहुत सी जातियां पिछड़ जाती हैं और उनकी स्थिति समाज में आगे चलकर और बेकार हो जाती है।
गुप्तों की राजस्व प्रशासन पर चर्चा कीजिए?
Discuss the revenue administration of Gupta's?
गुप्त काल को स्वर्ण काल के नाम से भी जाना जाता है। गुप्त काल में सामाजिक , आर्थिक व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है। गुप्त साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य होने के साथ – साथ अपनी राजस्व नीति को मजबूत बनाने में कामयाब रहा।
गुप्त काल में राजस्व अनेक प्रकार से लिया जाता था--
भू-राजस्व व्यवस्था -
भूमि का स्वामी सम्राट को माना गया है। भू राजस्व हर प्रकार की भूमि पर लगाया जाता था।
भू-राजस्व कुल उत्पादन का एक चौथाई से एक छठा भाग तक होता था।
इस समय प्रचलन में करीब 5 प्रकार की भूमि का उल्लेख इतिहासकारों को प्राप्त होता है।
1) क्षेत्र भूमि - क्षेत्र भूमि उसे कहा जाता है ,जो भूमि खेती योग्य होती है। इसमें मुख्य रूप से धान, गेहूं, ,गन्ना, कपास ,ज्वार आदि फसल होती थी। कृषक भूमि कर नगद या अनाज द्वारा दिया जाता था।
2 ) वास्तु भूमि - यह ऐसी भूमि होती थी जो निवास के योग्य थी।
निवास योग्य भूमि में लोगों को निवास कर (tax ) देना पड़ता था।
3) चरागाह भूमि - पशुओं को चराने योग्य भूमि को चरागाह भूमि कहा जाता है। इस भूमि पर भी सम्राट द्वारा कर ( tax ) लगाया गया। गुप्त साम्राज्य में पशुपालन बहुत बड़े स्तर पर किया जाता था लोग गाय, भैंस, घोड़े ,कुत्ते व हाथी तक का पालन किया करते थे इसीलिए चरागाह भूमि से भी राजस्व की अच्छी कमाई थी।
4) सील भूमि - ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी उसे सील भूमि कहा गया है। इसे अक्सर खाली छोड़ दिया जाता था
5) अप्रहत भूमि - जंगली भूमि को अप्रहत भूमि के नाम से जाना जाता है।
दान की भूमि-
सम्राट ब्राह्मणों वह मंदिरों को दान में भूमि दिया करते थे जो कर मुक्त थी।
इस पर शासक द्वारा किसी प्रकार का कोई कर ( tax ) नहीं लिया जाता था
बल्कि इसमें शासक अनुदान भी देते थे
व्यापारिक वस्तु पर कर-
गुप्त साम्राज्य में व्यापार उन्नत स्तर तक था। व्यापार के स्रोत आंतरिक व विदेशों तक प्राप्त होते हैं। उज्जैन प्रमुख व्यापारिक केंद्र के रूप में देखने को मिलता है। साम्राज्य में विदेशी व्यापार बंदरगाह द्वारा किया जाता था। वनों की वस्तुएं, नमक, मिट्टी के बर्तन ,मूर्तिकला, शिल्प कला ,कपड़े आदि का व्यापार किया जाता था।
व्यापार हेतु श्रेणी का निर्माण किया जाता था। श्रेणी व्यापारियों का एक समूह जिसमें एक प्रधान तथा 4 से 5 व्यक्तियों की समिति शामिल थी प्रत्येक श्रेणी की अपनी मोहर व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र निर्धारित थे।
चुंगी कर -
व्यापार उन्नत होने के कारण गुप्त साम्राज्य में चुंगी कर भी आय का एक स्रोत था। चुंगी कर द्वारा रास्तों और बंदरगाहों पर व्यापर करने वाले व्यापारी यह कर चुकाते थे।
जुर्माने की आय-
अपराध किए जाने व्यक्तियों पर जुर्माना लगाना एक आम बात है इसलिए अपराधियों पर लगाए गए जुर्माने से भी आय का कुछ हिस्सा आया करता था।
खदानों से धन -
गुप्त साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य था। यहाँ में बहुत सी खाने स्थापित थी इन खानों से बहुमूल्य रत्न प्राप्त किए जाते थे। इन रत्नों को व्यापार द्वारा बेचकर भी कमाई की जाती थी। तांबे और लोहे के खनन बहुत बड़ी मात्रा में किए जाते थे जिससे घरेलू बर्तन व औजार बनाने में सहायता मिलती थी। दिल्ली के महरौली में स्थित लोह स्तंभ गुप्त साम्राज्य के लोहे की उन्नत किस्म का एक अच्छा उदाहरण सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
राजकीय आय -
राजकीय आय को कुछ इस प्रकार विभाजित किया गया है-
भाग-
भू राजस्व से प्राप्त की गई आय को भाग कहा गया है जो एक चौथाई से एक छठवां हिस्सा था।
भोग-
राजा को हर दिन फल, फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर भोग के नाम से जाना जाता था।
हल दंड कर -
हल दंड कर नील बनाने वाले, शक्कर बनाने वाले, शिल्पकारों आदि पर लगाया जाता था।इस प्रकार स्पष्ट है कि गुप्त साम्राज्य में राज्य व्यवस्था किस प्रकार पूरी तरह राजा के हाथ में हुआ करती थी। आय का प्रमुख स्रोत विभिन्न प्रकार के करो द्वारा प्राप्त होता था।
गुप्त साम्राज्य के विघटन के लिए उत्तरदाई कारणों का विश्लेषण कीजिए?
Analyse the factors which brought about the disintegration of the Gupta Empire?
गुप्त साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य रहा है। साम्राज्य के मुख्य संस्थापक श्रीगुप्त थे लेकिन यह चंद्रगुप्त प्रथम को इसका वास्तविक संस्थापक माना जाता है उनके बाद उनके पुत्र समुद्रगुप्त द्वारा इस साम्राज्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाया परंतु प्रत्येक साम्राज्य की भांति गुप्त साम्राज्य का विघटन भी समय के साथ होने लगा जिसके कारण बहुत से हैं।
गुप्त साम्राज्य के विघटन के प्रमुख कारण
हूणों का आक्रमण -
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल से ही कुकू का आक्रमण शुरू हो चुका था। हूण मध्य एशिया का एक कबीला था जो भारत की और उत्तर पश्चिमी सीमाओं से प्रवेश कर रहा था। पांचवी शताब्दी सी.ई. के अंत में हुण सरदार तोरमण ने पश्चिमी एवं केंद्रीय भारत के अधिकतर भागों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। आक्रमण ने धीरे-धीरे गुप्त साम्राज्य को खोखला कर दिया। आक्रमण विशेषकर उत्तर पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में गुप्त साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुए।
प्रशासनिक कमजोरियां -
गुप्त साम्राज्य में कमजोर शासकों के प्रवेश के साथ स्थानीय सरदारों व राजाओं ने अपना प्रभुत्व दोबारा स्थापित करने का प्रयास किया। प्रशासन में लगातार होते षड्यंत्र और आंतरिक युद्ध से गुप्त साम्राज्य को अंदर ही अंदर कमजोर हो रहा था
आर्थिक कमजोरी -
हूणों के आक्रमण के कारण लगातार युद्ध व सैनिक अभियानों से राज्य के राजकोष पर अतिरिक्त भार पड़ता गया। धीरे-धीरे साम्राज्य में आर्थिक संकट बढ़ता गया। अतिरिक्त भार से गुप्त साम्राज्य के आर्थिक विकास में एक खाई खोद दी। जिसे कभी साम्राज्य पार ना कर सका।
अयोग्य उत्तराधिकारी-
चंद्रगुप्त प्रथम , समुद्रगुप्त, स्कंदगुप्त के बाद कोई अधिक योग्य शासक गुप्त साम्राज्य में प्रवेश ना ले सका जो गुप्त साम्राज्य को ऊंचाइयों तक पहुंचा सके। जिससे गुप्त साम्राज्य की स्थिति कमजोर हुई और साम्राज्य का विघटन हुआ।
उत्तराधिकारी के लिए एक निश्चित नियम का अभाव -
गुप्त साम्राज्य में उत्तराधिकारी के लिए एक निश्चित नियम तय नहीं था। जिससे शासक बनने की होड़ में आंतरिक गृहयुद्ध भी छिड़ जाते थे।
धार्मिक कारण -
गुप्त साम्राज्य के शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था जिसके कारण उनके युद्ध कौशल पर प्रभाव पड़ा और उनकी विजय ख्याति में कमी आई। अब धीरे-धीरे युद्ध से दूर शांति की तरफ बढ़ रहे थे
जो सेना और लोगों को अधिक रास नहीं आया। शांति की नीति के कारण गुप्त साम्राज्य के विरोधियों ने अपना सर उठाना शुरू कर दिया।
गुप्तकालीन दंड नीति
गुप्तकालीन दंड नीति अत्यंत नम्र होने के कारण गुप्त साम्राज्य में अपराध अपनी जड़े पसारने लगे। साम्राज्य के आंतरिक शत्रुओ को अशांति एवं अव्यवस्था फैलाकर गुप्त साम्राज्य को विनाश की ओर ले जाने का कार्य किया।
गुप्त साम्राज्य में अपनी गयी नई विदेश नीति -
विदेश नीति में बदलाव के कारण भी गुप्त साम्राज्य का विघटन हुआ। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिन्छवियो के साथ, समुद्रगुप्त ने विदेशी जातियों के साथ, विवाह संबंध कूटनीतिक संबंध स्थापित किए। परंतु बात किस समय में बदलती विदेश नीति के कारण गुप्त साम्राज्य विघटन की और बड़ा।
साम्राज्य की विशालता -
समुद्रगुप्त के समय साम्राज्य उत्तर से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक फैला हुआ था। इतने विशाल साम्राज्य को संभालने हेतु एक योग्य शासक की आवश्यकता थी जो पहले के समय में पूरी हुई परंतु बात के समय में विशाल साम्राज्य का फैलाव शासकों द्वारा संभाला ना जा सका जिससे क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ।
इस प्रकार कहा जा सकता है की एक विशाल साम्राज्य जिसका सूर्य कभी ना अस्त होने की बात कही जाती थी वह भी विघटन की और धीरे-धीरे बढ़ता चला गया इसका कोई एक निश्चित कारण नहीं है बहुत से कारण मिलकर एक साम्राज्य को विघटन की ओर ले जाते हैं। हुणो का आक्रमण, धार्मिक नीति ,आर्थिक कमजोरी, योग्य शासक का ना होना, आंतरिक ग्रह युद्ध यह कुछ प्रमुख कारण गुप्त साम्राज्य का पतन की ओर ले गए।
गुप्त काल के पश्चात की समय अवधि के दौरान जाति व्यवस्था पर एक निबंध लिखिए।
Write a note on the caste system in the post- Gupta period?
गुप्त काल के पश्चात सामाजिक संरचना में बड़े- बड़े बदलाव देखने को मिलते हैं।
असमान भूमि के बंटवारे ने ऐसे वर्ग को पैदा किया कि वह वर्ण पर आधारित सामाजिक स्तरों को लांघ गए। बहुत सी नई जातियों का उद्भव हुआ।
नई जातियों की बढ़ती संख्या ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, कार्य स्थलों एवं शुद्र को प्रभावित किया।
गुप्त काल के बाद सामाजिक संरचना –
जमीदार और किसान वर्ग -
इस समय जमींदारों के ऐसे वर्ग का उद्भव हुआ जो किसानों से भिन्न वर्ग था।
जमींदारों को उच्च वर्ग में राजा, सामंत, मंडलेश्वर, महासामंत, कहा जाता था।
राजा ने भी भारी-भरकम उपाधियां प्रदान करके इन्हें भूमि का स्वामित्व दिया तथा इनकी प्रभुता को बढ़ाया।
किसान वर्ग भी स्वयं में कोई एक रूप समुदाय नहीं था। उनको कृषक, कृषि वाला , किसान आदि अन्य नामों से पहचाना जाता था।
इन नामों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका भूमि पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था।
किसानों का वर्गीकरण भूमि जोतने वाला, निर्भर किसान, बटाईदार, खेतिहर मजदूर, आधार पर किया जाता था।
जातियों में विभिनता-
एक ही वर्ण के अंतर्गत बहुत सी जातियां हुआ करती थी
जिसके कारण समाज हजारों जातियों में उप जातियों में विघटन हो गया।
1) ब्राह्मण -
ब्राह्मण के बीच भी जातियों की संख्या कम नहीं थी। राजकाज के ब्राह्मण समाज में अधिक विशेष अधिकार वाले होते थे, साधारण ब्राह्मण की महानता कम थी। कुछ ब्राह्मण शारीरिक श्रम को महत्वपूर्ण मानते थे तो वहीं कुछ ब्राह्मण शारीरिक श्रम की अवहेलना करते थे।
ब्राह्मणों के भीतर भी बहुत सी उप जातियां बनती चली गई।
2) क्षत्रिय -
क्षत्रियों के बीच जाति का कारण स्थानीय कबीलों के बीच शासन तथा विदेशी जाति गुटों का राजनीतिक शक्ति के साथ समाज की मुख्यधारा में मिल जाना था। विदेशी जातीय गुटों में शकों, हूणों आदि को वर्ण व्यवस्था में समाहित करते हुए उनको दूसरी श्रेणी का क्षत्रिय बना दिया गया।
इस प्रकार क्षत्रिय वर्ग में भी जाति को लेकर बहुत से असमानता है देखने को मिली।
3 ) शुद्र -
गुप्त और उत्तर गुप्त काल में असमान आर्थिक शक्ति के संसाधन के साथ-साथ छोटे कृषक जातियां, धनी किसान, बटाईदार तथा कारीगर जातियां भी शुद्र वर्ण में शामिल हो गई। किसान गुटों को ब्राह्मण समाज ने शूद्र के रूप में ही शामिल किया जिसके परिणामस्वरूप शूद्रों की संख्या तथा उनकी जातियों में काफी वृद्धि हुई।
कार्यस्थल का विकास-
भूमि अनुदान के फलस्वरुप भूमि राजस्व तथा भूमि का हस्तांतरण आदि कार्य सामने आए
जिसके फलस्वरूप एक ऐसी व्यक्ति की आवश्यकता महसूस हुई जो इन कार्यों को सफलतापूर्वक संभाल सके। प्रारंभ में यह कार्य केवल उच्च वर्ग के पढ़े-लिखे लोग किया करते थे। परंतु समय के साथ इनकी भर्तियां कुछ अन्य वर्गों के लिए भी कराई जाने लगी
जो वर्ग बाद में मुनीम रूप में आगे चलकर प्रसिद्ध हुए।
अछूत -
अपवित्र या अछूत जातियों का वर्णन इतिहासकारों को प्रारंभ में बहुत कम संख्या में देखने को मिलता है परंतु समय के साथ - साथ इनकी संख्या बढ़ती चली गई। तीसरी सदी ई के आसपास से अछूत परंपरा ने जोर पकड़ना प्रारंभ किया। गुप्त काल में धर्मशास्त्र का लेखक कात्यायन ऐसा प्रथम लेखक था जिसने अछूत के लिए अस्पृश्य शब्द का प्रयोग किया।
शिकारियों, मछुआरों, जल्लादों , कसाईयों को अछूतों की श्रेणी में शामिल किया गया।
कालिदास तथा फाहियान आदि लेखकों ने अपनी रचनाओं में समाज पर लगाए गए इनके प्रतिबंधों का वर्णन किया है। चांडालों का भी एक भाग अछूतों के अंतर्गत आता था। ब्राह्मणों और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अछूत जातियां पिछड़े आदिवासी थे यह ब्राह्मणीय पद्धति को स्वीकार नहीं करते थे इसलिए इन्हें समाज से वंचित दूर गांव में बसाया जाता था।
दस्तकारी और जातियां -
नगरीय केंद्रों के पतन के फलस्वरुप दस्तकारो की महत्वता कम हुई। स्वर्णकार, मालाकार, चित्रकार जातियां दस्तकारो में उच्च श्रेणी पर आ पहुंची तथा वही जुलाहे, रंगदार, दर्जी ,नाई ,जूतों का निर्माण करने वाला ,लोहार, धोबी अन्य को अछूतों की श्रेणी में डाल दिया गया।
इस प्रकार गुप्त काल के बाद समाज में परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिससे बहुत सी जातियां पिछड़ जाती हैं और उनकी स्थिति समाज में आगे चलकर और बेकार हो जाती है।
हर्ष के सैन्य अभियानों के आधार पर उसके साम्राज्य के विस्तार पर चर्चा कीजिए?
Discuss the extent of Harsha's empire on the basis of his military campaigns?
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद छठी शताब्दी ईसवी में उत्तर व दक्षिण भारत में नए-नए साम्राज्य का उदय हुआ जिसमें से उत्तर भारत का प्रमुख साम्राज्य वर्धन वंश के नाम से जाना जाता है इस वंश के संस्थापक पुष्यभूति थे जिसकी राजधानी थानेश्वर थी
वर्धन वंश के प्रसिद्ध राजा प्रभाकर वर्धन को माना जाता है इनके दो पुत्र व एक पुत्री थी उनके बड़े पुत्र का नाम राज्यवर्धन तथा छोटे पुत्र का नाम हर्षवर्धन था हर्षवर्धन के पिता की मृत्यु के बाद राज्यवर्धन को थानेश्वर का राजा बना दिया परंतु राज्यवर्धन की हत्या गोड शासक शशांक के द्वारा कर दी गई
इसके बाद हर्षवर्धन को 16 वर्ष की आयु में राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई
हर्षवर्धन के सैन्य अभियान
हर्षवर्धन का शासनकाल 590 ईसवी से 647 ईसवी तक माना जाता है
राजा बनने के बाद उन्होंने सर्वप्रथम अपनी बहन राज्यश्री को मालवा के राजा देव गुप्त के बंदीग्रह से छुटकारा दिलाया तथा शशांक से अपने भाई की मृत्यु का बदला लिया
शशांक के विरुद्ध हर्षवर्धन का अभियान
हर्ष ने अपना प्रथम सैन्य अभियान शशांक के विरुद्ध चलाया
कन्नौज के राजा ग्रह वर्मा से हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री का विवाह हुआ था विवाह के बाद मालवा के राजा देव गुप्त ने कन्नौज पर आक्रमण किया
जिसमें ग्रह वर्मा की हत्या कर दी गई और राज्यश्री को बंदी बना लिया गया
अपनी बहन की सहायता हेतु हर्षवर्धन के बड़े भाई राज्यवर्धन ने मालवा के राजा देव गुप्त से कन्नौज वापस लेने तथा बहन को स्वतंत्र करने के लिए आए उसी दौरान शशांक के द्वारा षड्यंत्र द्वारा राज्यवर्धन की हत्या कर दी
हर्षवर्धन ने शशांक पर आक्रमण करके , कन्नौज को वापस लिया तथा अपनी बहन राज्यश्री को स्वतंत्र किया
बहन की स्वतंत्रता के बाद वह कन्नौज संभालने में असमर्थ थी जिसके कारण हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपने साम्राज्य में मिला लिया और हर्षवर्धन द्वारा कन्नौज को अपनी नई राजधानी बनाया गया
वल्लभी राज के विजय अभियान
ध्रुवसेन वल्लभी राज्य का राजा था
वल्लभी राज्य, सैन्य दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था इसीलिए हर्षवर्धन मालवा को पार करते हुए वल्लभी तक पहुंचा और ध्रुवसेन को पराजित किया
परंतु यह माना जाता है कि हर्षवर्धन, ध्रुवसेन से काफी प्रभावित हुआ और बाद में उसने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन के साथ करवा दिया
हर्षवर्धन ने ध्रुवसेन की सहायता से उत्तर भारत के अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त की
हर्षवर्धन के पूर्वी भारत पर विजय अभियान
हर्षवर्धन ने भास्कर वर्मा के साथ मिलकर पूर्वी भारत पर आक्रमण किया जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अनेक राज्यों में विजय हासिल की
640 ईसवी के आसपास ओडू, कलिंग तथा कांगोद पर विजय प्राप्त की इसके बाद एक बौद्ध सभा बुलाई गई जिसे कन्नौज सभा के नाम से जाना जाता है
हर्षवर्धन द्वारा चालुक्य पर असफल सैन्य अभियान
हर्षवर्धन ने उत्तर भारत के बड़े क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया जिसके बाद उसने अपना रास्ता दक्षिण की तरफ मोड़ा चालुक्य वंश महाराष्ट्र में शासन कर रहा था
पुलकेशिन द्वितीय इस राज्य का एक शक्तिशाली शासक था
हर्षवर्धन ने पुलकेशिन द्वितीय पर अनेक बार आक्रमण किया परंतु वे असफल रहा
हर्षवर्धन ने पांच राज्यों के सेनाओं को अपने साथ मिलाकर पुलकेशिन पर आक्रमण करने की योजना भी बनाई
परंतु 618 ईसवी के आसपास उसे फिर एक बार हार का सामना देखना पड़ा
इस प्रकार हर्षवर्धन ने अपने साम्राज्य को बिहार, उड़ीसा और जम्मू कश्मीर तक फैलाया
हर्षवर्धन ने राज्य के विस्तार के साथ साथ राजनैतिक उपलब्धियां व साहित्यक उपलब्धियां भी प्राप्त की
गुप्त साम्राज्य के बाद उत्तर भारत में वर्धन साम्राज्य के दौरान हर्षवर्धन के काल को इतिहासकारों ने महत्वपूर्ण बताया है
राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित वाद विवाद पर एक लेख लिखिए?
Write a note on the debate on the origins of the Rajput’s?
750 ई. से 1200 ई. बीच का समय भारतीय इतिहास में अनेक राजवंशों के उत्थान और पतन का काल रहा है इन राजवंशों में गुज्जर, प्रतिहार, चौहान आदि अधिकांश वंश राजपूत माने जाते हैं।
भारत में एक शक्तिशाली योद्धा वर्ग के रूप में राजपूतों का उदय ऐतिहासिक बहस का विषय बना हुआ है।
राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में कई वाद विवाद हैं,
1- आर्यन प्रवासन का सिद्धांत:
राजपूतों के उत्थान का एक सिद्धांत आर्यों के आगमन पर भी आधारित है
इस सिद्धांत के अनुसार राजपूत आर्य के वंशज थे जो उत्तर पश्चिम से भारत आए से थे।
उन्होंने खुद को एक प्रमुख योद्धा वर्ग के रूप में विकसित किया और अंततः राजपूत राज्यों के शासक के रूप में सामने आये।
2- स्वदेशी मूल का सिद्धांत:
राजपूतों के उत्थान का एक अन्य सिद्धांत स्वदेशी मूल के विचार पर आधारित है।
कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक तथा हूणों आदि विदेशी शासकों के वंशज से संबंधित माना है कर्नल टॉड ने अपने समर्थन में कहा अश्वमेध यज्ञ के रीति रिवाज और महिलाओं की स्थिति विदेशों और भारतीयों में समान दिखाई पड़ती है इसलिए राजपूत विदेशी मूल के हो सकते हैं
3- सामंतवाद का सिद्धांत:
राजपूतों का तीसरा सिद्धांत सामंतवाद के विचार पर आधारित है।
इस सिद्धांत के अनुसार, भारत में स्थापित सामंती व्यवस्था के परिणामस्वरूप राजपूत एक योद्धा वर्ग के रूप में उभरे।
उन्होंने भूमि पर अपने नियंत्रण और कुलीन शासकों के संरक्षण के माध्यम से अपनी शक्ति और धन प्राप्त किया।
4- राजनीतिक समेकन सिद्धांत:
राजपूतों के उत्पत्ति का एक अन्य सिद्धांत राजनीतिक समेकन सिद्धांत है।
इस सिद्धांत के अनुसार, गुप्त काल के बाद भारत में हुए राजनीतिक एकीकरण के परिणामस्वरूप राजपूत प्रमुख योद्धा वर्ग के रूप में उभरे।
वे अपनी शक्ति और प्रभाव को मजबूत करने की क्षमता और बाहरी आक्रमणकारियों का विरोध करने में उनकी सफलता के परिणामस्वरूप सत्ता में आए थे
5-अग्नि कुंड का सिद्धांत-
कुछ इतिहासकारों की कहानियो के अनुसार राजपूत अग्निकुंड से प्रकट हुए वीर योद्धा थे परशुराम के सभी क्षत्रिय योद्धा का विनाश किया तब वैदिक ऋषि ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए माउंट आबू पर यज्ञ किया
उस यज्ञ से क्षत्रिय वीर चौहान ,सोलंकी, चालुक्य व प्रतिहार उत्पन्न हुए प्रतिहार को आगे चलकर की राजपूत कहलाए
प्राचीन क्षत्रियों के वंशज-
गौरी शंकर हीराचंद और ओझा ने राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों का वंशज प्रमाणित करने का प्रयास किया है। यह कर्नल टॉड के तर्क का खंडन करते हुए कहते हैं कि रीति रिवाज विदेशियों द्वारा भारत से ग्रहणकिए गए थे। इतिहासकार ओझा का मानना है कि राजपूत अपनी जातिगत विशेषताओं तथा शारीरिक संरचनाओं में भी प्राचीन क्षत्रियों की संतान प्रतीत होते हैं।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में भारतीय व विदेशी इतिहासकारों के मत मे बहुत सारी विभिन्नता देखने को मिलती है।
इतिहासकारों का एकमत ना होने के कारण राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में कोई एक बात स्पष्ट रूप से नहीं कही जा सकती
इसीलिए इतिहासकारों में उत्पत्ति को लेकर वाद-विवाद हैं।
चोल प्रशासन पर एक टिप्पणी लिखिए?
Write a note on chola adminstration?
9वी से 13वी शताब्दी तक चोल का शासन अत्यधिक प्रमुख और शक्तिशाली माना जाता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में चोल का शासन सबसे प्राचीन माना गया है। मेगस्थनीज की इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों में चोलों का वर्णन किया गया है। संगम युग के उपरांत में चोलों का राजनीतिक महत्व समाप्त हो गया। आठवीं शताब्दी के बाद दोबारा से चोलों की राजनीतिक सत्ता का उत्थान हुआ । इस समय तक दक्षिण भारत में राजपूत, चालुक्य, पल्लव और पांडय में सर्वप्रथम बनने का संघर्ष चल रहा था। पल्लव और पांडय के संघर्ष का लाभ उठाकर चोलों ने नवीं शताब्दी में एक बार फिर अपनी राजनैतिक सत्ता हासिल की। चोल अपने संगठित केंद्रीय प्रशासन के लिए जाने जाते हैं। चोल प्रशासन का वर्णन इस प्रकार दिया गया है-
चोल शासकों का केंद्रीय प्रशासन-
चोल प्रशासन में राजा का प्रमुख स्थान होता था चोल प्रशासन एक केंद्रीय प्रणाली पर आधारित था। सम्राट के पास प्रशासन से संबंधित निर्णय लेने की शक्ति थी। केंद्र प्रणाली का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट हुआ करता था।
प्रशासनिक ईकाई-
प्रशासन की सुविधा हेतु चोल साम्राज्य को 6 प्रांतों में विभाजित किया गया था इन प्रांतों को मंडलम कहा जाता था। इन प्रांतों की देखरेख राजकुमार को करनी होती थी। प्रशासन प्रादेशिक तथा स्थानीय रूप में चलाया जाता था। चोल साम्राज्य की विशेषता उसका स्थानीय स्वशासन था।
नौकरशाही-
चोल प्रशासन की नौकरशाही व्यवस्था अत्यंत संगठित थी
चोल प्रशासन अलग-अलग विभाग में विभाजित किए गए थे तथा सभी विभाग की अपनी एक विशिष्ट जिम्मेदारी हुआ करती थी। नौकरशाही राजा की नीतियों को लागू करने का कार्य, कानून व्यवस्था बनाने, कर एकत्रित करने, लोगों को सेवाएं प्रदान करने आदि जिम्मेदारी के कार्य किया करती थी।
सेना -
जिस प्रकार प्रत्येक शासन में सम्राट का साथ उसकी एक मजबूत सेना देती है
इसी प्रकार चोल प्रशासन के पास एक सुव्यवस्थित और मजबूत सेना थी
जो सम्राट की रक्षा आक्रमणकारियों से किया करती थी। नौकरशाही की भांति सेना भी विभिन्न इकाइयों में विभाजित की गई। प्रत्येक इकाई की अपनी विशिष्ट जिम्मेदारियां हुआ करती थी इन इकाइयों में अनुभवी कमांडर नेतृत्व प्रदान किया करते थे।
कानून व्यवस्था -
चोल प्रशासन कानून के शासन पर अत्यधिक जोर दिया करते थे। प्रशासन ने यह विशेष ध्यान दिया की कानून के तहत सभी लोगों के साथ समान और उचित व्यवहार किया जाए इससे साम्राज्य में सामाजिक सद्भावना व स्थिरता को बढ़ावा मिला।
चोल की कराधान प्रणाली-
चोलों के पास एक व्यवस्थित कराधान प्रणाली मौजूद थी जो विशेष ध्यान रखती थी कि जनसाधारण को उनकी सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना उचित समय में
कर (tax ) का भुगतान करें
यह प्रणाली पूरी तरह निष्पक्ष और दृढ़ता के सिद्धांत पर आधारित थी
एकत्र किए गए कर (tax ) को सार्वजनिक कार्यों जैसे- सेना को बनाए रखना, कृषि व्यवस्था, प्रशासन को मजबूत करना आदि कार्यों में खर्च किया जाता था।
उपयुक्त बिंदुओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चोल प्रशासन वर्तमान समय की भांति अत्यधिक सुव्यवस्थित और सुनियोजित प्रकार से चलाया जाता था जिसमें सभी वर्ग का ध्यान रखा जाता था।
लगभग 300 से 1200 सी. ई.के दौरान विकसित पौराणिक हिंदू धर्म की विशेषताओं पर चर्चा कीजिए?
Discuss the features of puranik Hinduism that developed from 300 to 1200 C.E?
वैदिक ब्राह्मणवाद के पतन के पश्चात कई समुदाय ने मिलकर पौराणिक हिंदू धर्म का गठन किया। पौराणिक हिंदू धर्म विश्वास इसलिए अधिक है क्योंकि यह औपचारिक रूप से कई धारणाएं अपने अंदर समाहित किए हुए हैं जो स्थानीय सांस्कृतिक, धार्मिक मान्यता और प्रथाओं को विश्लेषण करती है। वैदिक ब्राह्मणवाद से पौराणिक हिंदू धर्म में परिवर्तन अचानक नहीं हुआ बल्कि समय के साथ अनेक स्थानीय पंथी लोगों ने इसमें बदलाव किया जो एक बड़ी धीमी प्रक्रिया थी। एक नई प्रणाली आने का अर्थ यह नहीं था कि वैदिक ब्राह्मणवाद से जुड़े सभी पुराने विचारों को त्याग दिया गया हो। हिंदू धर्म के स्रोत पुराणों को कहा गया है। यह पुराण तीसरी से चौथी शताब्दी सी.ई. में लिखे गए जिनकी संख्या 18 है। मनुवादी विचारधारा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी इसलिए पौराणिक हिंदू धर्म का एक घटक वैदिक ब्राह्मणवाद भी माना गया है। ब्राह्मणवादी विचारधारा से दूर पौराणिक हिंदू धर्म की अपनी कुछ विशेषताएं थी जिनके कारण यह बहुत अधिक प्रचलित हुआ।
पौराणिक हिंदू धर्म की विशेषताएं-
अनुष्ठान में वृद्धि -
वैदिक ब्राह्मणवाद में अनुष्ठान के लिए अधिक कर्मकांड करने पड़ते थे इसलिए यह अनुष्ठान केवल राजा और सामंत वर्ग ही करवा पाते थे। परंतु पौराणिक हिंदू धर्म में अनुष्ठानों की संख्या बढ़ी और अनुष्ठान हर व्यक्ति अपने अनुसार करवा सकता था।
बलि का महत्व घटा -
वैदिक ब्राह्मण वाद में बलि देना एक प्रचलन बन चुका था
इस समय में बलि का महत्व कम हुआ।
सामूहिक अनुष्ठान और पूजा की भूमिका मुख्य स्थान ले लिया।
उपासना की साधारण पद्धति-
वैदिक ब्राह्मण वाद में मूर्ति पूजा हेतु अत्यधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता था इसीलिए यह उपासना केवल अभिजात वर्ग ही कर पाता था परंतु इस समय में मूर्ति पूजा और मंदिरों के भीतर पूजा का अधिकार जनसाधारण को प्राप्त हुआ
पूजा की गतिविधि में वन क्षेत्रों में पाए जाने वाले पौधों के पत्तों और फूलों को भी शामिल किया गया। पहले यह उपासना केवल कुछ विशेष प्रकार के फूल विशेष प्रकार की पद्धति और ब्राह्मण द्वारा ही की जाती थी।
धार्मिक यात्राओं में जनसाधारण-
तीर्थ स्थानों पर जाना तथा तीर्थ स्थलों को महत्वपूर्ण बनाने का कार्य इसी समय प्रारंभ हुआ पुराणों में तीर्थ स्थलों की एक विशाल संख्या का उल्लेख किया गया है। ब्राह्मणवाद के कारण पहले इन तीर्थ स्थलों की मान्यता कम हुआ करती थी और लोग ब्राह्मणों से अधिक जुड़ाव महसूस करते थे परंतु अब यह प्रथा बदलती हुई दिखाई पड़ती है लोगों ने ब्राह्मणवाद से निकलकर तीर्थ स्थलों पर जाकर अपनी उपासना स्वयं करना प्रारंभ कर दिया था।
पौराणिक हिंदू धर्म में स्थानीय देवताओं को शामिल -
स्थानीय स्तर पर अलग-अलग ईश्वर प्रसिद्ध हुआ करते थे। हिंदू धर्म को अधिक विशाल बनाने हेतु इनमें स्थानीय देवताओं जैसे - विष्णुवाद ,शैववाद ,शक्तिवद को भी शामिल किया गया।
पौराणिक कथाओं का प्रचार-
पौराणिक हिंदू धर्म में 18 पुराणों की अनेक कथाओं और लोक साहित्य को जनसाधारण के भीतर लोकप्रिय किया गया
पुराण उपदेशात्मक ना होकर लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय हुए
जो वर्ग शिक्षा से दूर था उन्हें पढ़कर और लोकगीतों के माध्यम से इन साहित्य की पहुंच बढ़ाई गई।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि 300 से 1200 सी इ के दौरान विकसित हुए पौराणिक हिंदू धर्म में वैदिक ब्राह्मण वाद से कई भिन्नता थी
वैदिक हिंदू धर्म आने से हिंदू धर्म का प्रचार प्रसार हुआ और यह लचीला बन कर पेश हुआ वैदिक ब्राह्मणवाद अधिक होने के कारण लोगों ने बौद्ध और जैन धर्म की तरफ अपना रुख मोड़ लिया था जो पौराणिक हिंदू धर्म आने से रुक गया
पौराणिक हिंदू धर्म ने सभी को अपने अनुसार भगवान की उपासना करना सिखाया इसीलिए अपनी विशेषताओं के कारण आज भी अपना स्थिति बनाए हुए हैं।
सिंध पर अरब विजय और उनके परिणामों पर प्रकाश डालिए?
Discuss the Arab conquest of Sindhu and its consequence?
इस्लाम मजहब का उदय सातवीं शताब्दी में मोहम्मद द्वारा की गई। उनकी मृत्यु के बाद इस्लाम का प्रचार खलीफा के अंतर्गत आ गया। पश्चिमी एशिया में इस्लाम का उदय और विश्व भर में मुस्लिम विजय प्रारंभिक मध्यकाल की एक विशेषता है। इसी कड़ी में मोहम्मद बिन कासिम सिंध की ओर आगे बड़ा।
सिंध पर अरब विजय के स्रोत -
इस घटना के बारे में इतिहासकारों के पास अधिक स्रोत नहीं है। फारसी ग्रंथ चचनामा एकमात्र ऐसा स्रोत है जिससे सिंध पर अरब विजय की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। चचनामा का अर्थ है चर्च की कहानी।
मोहम्मद कासिम द्वारा सिंध पर विजय अभियान-
सिंध पर राजा दाहिर (ब्राह्मण वंश के अंतिम शासक) का शासन था। सिंध वर्तमान के पाकिस्तान दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में स्थित है।भारतीय उपमहाद्वीप प्राचीन काल से ही संपन्न रहा है। पश्चिमी तट के सागर द्वारा भारत का व्यापार अरब व्यापारियों से हुआ करता था जिसके कारण उन्हें सागर के मार्ग की जानकारी थी। व्यापारी अपने साथ भारत की खबरें और विलासिता की वस्तुएं सोने, चांदी ,हीरे, मूर्तियां आदि अरब ले जाते थे। इन विलासिता की वस्तुओं के कारण अरब भारत पर विजय पाना चाहता था।
अपने इस्लामीकरण के बाद उनके भीतर धर्म प्रचार की भावना थी जिसके कारण वे अफ्रीका ,मध्य पूर्व यूरोप और एशिया के अनेक क्षेत्रों में फैल गए।
अरबों की भारतीय महाद्वीप में सिंध के तटीय नगरों द्वारा घुसपैठ 636 C.E से ही खलीफा उमर के शासनकाल में प्रारंभ हो गई थी। परंतु पहले यह घुसपैठ केवल लूटपाट के लिए की जाती थी लेकिन बाद में उन्होंने यह घुसपैठ सिंध पर विजय पाने के लिए की।
सिंध पर विजय का कार्य मोहम्मद बिन कासिम को सौंपा गया। इराक के शासक हज्जाज ने सिंध के विरुद्ध अभियान का नेतृत्व का मोहम्मद बिन कासिम को सौंपा जो उसका भतीजा और कुशल सेनापति था।
श्रीलंका से जहाज के अंदर बड़ी मात्रा में अरब की महिला व बच्चे जा रहे थे। वे रास्ते में देवल बंदरगाह (जो सिंध के अधीन था) उनके साथ समुंदरी डाकू ने लूटपाट व हत्या की ,जिससे इराक शासक हज्जाज ने दाहिर से बात की और इसे रोकने का आदेश दिया, परंतु दाहिर ने इसमें अपनी असमर्थता दिखाई जिससे बगदाद और ईरान ने दाहिर पर समुद्री डाकुओं के संरक्षण का आरोप लगाया।
जिसके कारण इराक के शासक ने मोहम्मद बिन कासिम को विजय अभियान हेतु सिंध पर भेजा।
दाहिर (ब्राहमण ) अपने क्षेत्र में गृह युद्ध से जो चंक वंश (शुद्र) के साथ चल रहा था परेशानी में था जिससे वे मोहम्मद बिन कासिम जैसी परेशानी को आते हुए ना देख सका।
कासिम सिंधु घाटी तक देवाल शहर के स्थलीय क्षेत्र को घेर कर पहुंच गया। देवाल सिंधु नदी के मुहाने पर एक बड़ा शहर था।
इसके बाद सेना आगे बढ़ी और एक के बाद एक क्षेत्रों को जीती चली गई।
नीरुन (पाकिस्तान के वर्तमान का हैदराबाद के निकट शहर) ने शांतिपूर्वक कासिम को आत्मसमर्पण कर दिया।
बस्मद ,साड्सान ,सुवान्द्री पर कासिम ने कब्जा किया और अंत में सिंधु नदी पार करके स्वयं दाहिर से निपटने की ओर निकल पड़ा।
राजा दाहिर अपनी सशक्त सेना के साथ कई दिनों तक वीरता पूर्वक हमलावरों से युद्ध किया। कासिम ने एक के बाद एक हमले किए परंतु तीसरे हमले में दाहिर की हार हुई और वह मारा गया।
इसके बाद रेवाड़ , निरुन, मुल्तान, ब्राह्मनाबाद और अलोन सभी पड़ोसी शहरों पर कब्जा कर लिया इस प्रकार सिंह राज्य पर अरबों द्वारा 712 सी के अंत तक विजय प्राप्त कर ली गई थी।
सिंध पर अरब विजय के परिणाम -
सिंध पर अरब विजय के बहुत से परिणाम देखने को मिलते हैं
इस्लाम का उदय-
भारतीय उपमहाद्वीप में यह घटना इस्लाम का उदय के रूप में देखी जाती है। इससे पहले भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम का प्रभाव देखने को नहीं मिलता।
आर्थिक प्रभाव-
सिंध अब मुस्लिम व्यापारियों का केंद्र बन चुका था किसानों से भूमि छीनकर अरब व्यापारियों को बसाया गया अनेक इमारतें, मंदिर तोड़कर मस्जिदों का निर्माण किया गया तथा बहुत अधिक मात्रा में लूटपाट की गई।
राजनीतिक प्रभाव-
अरबों के आक्रमण से लेकर मध्य युग के अंत तक बराबर ही सिंध पर सारे मुस्लिम का प्रभुत्व रहा। अरब यात्री भारत आए और विभिन्न क्षेत्रों में यात्राएं की गई। भारत के बारे में बहुत से यात्रा वृतांत भी तैयार किए गए।
सांस्कृतिक प्रभाव-
भारतीय संस्कृति पर अरब के लोगों का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि अरबी लोग भारत की संस्कृति से बहुत कुछ सीख कर गए। अरब अपने साथ चिकित्सा, विज्ञान, गणित तथा दर्शन ग्रंथ का अध्ययन हेतु साथ ले गए। अरब में इन ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया। अरबों ने अंक व दशमलव का ज्ञान लिया।
पंचतंत्र सूर्य सिद्धांत आदि पुस्तक का भी अरबी में अनुवाद किया गया।
सामाजिक प्रभाव-
लोगों ने अब उपमहाद्वीप में विवाह संबंध स्थापित करने प्रारंभ कर दिए थे।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि रावर का युद्ध मोहम्मद दाहिर के बीच उपमहाद्वीप में इस्लाम के उदय के रूप में देखा जाता है जिसके बाद उपमहाद्वीप में अनेक परिवर्तन आए।
लगभग 700 से 1200 सी.ई. के दौरान जातियों के उदय व प्रसार को स्पष्ट कीजिए इसमें किस प्रकार एक सामाजिक परिवर्तन आए?
Elucidate the rise and proliferation of castes during the period 700-1200 C.E. how did it bring about a social transformation?
भारतीय इतिहास में 700 से 1200 सी.ई. के समय काल को प्रारंभिक मध्ययुगीन कहा जाता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ शुरू होता है और भारत में राजनीतिक इस्लाम आने के साथ समय समाप्त होता है। यह समय इतिहासकारों के बीच एक बड़ी बहस का मुद्दा है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल से ही जाति की पहचान प्रमुख थी। सामाजिक संरचना की बदलती प्रकृति ने समाज में लोगों को उच्च व निम्न दोनों प्रकार के मार्ग दिखाएं जिससे समाज गतिशील हो सके। इस समय में जातियों से लेकर वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन देखने को मिलता है जिससे समाज का स्वरूप में बदलाव होते हैं।
700 से 1200 सी.ई.के दौरान नई जातियों का उदय-
इस समय वर्ण व्यवस्था के भीतर मिश्र जातियों के प्रसार की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी जाति के भीतर विभिन्न स्तरों पर पदानुक्रम बनाए गए। जाति के साथ-साथ गोत्रों का प्रसार भी जारी रहा और चौधरी शताब्दी तक इसकी संख्या 500 पहुंच गई।
पुरोहित वर्ण से ब्राह्मण उपजाति की और समाज --
ब्राह्मणों में एक अखंड या समरूप समूह का गठन नहीं किया । ब्राह्मणों में कई गोत्र वंश आदि में विभक्त हो गए। कई बार ब्राह्मणों की पहचान उनके क्षेत्रीय ,प्रादेशिक मूल, वैदिक शिक्षा ,कार्य आदि के अनुसार भिन्न भिन्न थी। उत्तर व दक्षिण क्षेत्र के अनुसार भी ब्राह्मणों के समूह विभक्त हो गए उत्तर के ब्राह्मणों को पंच गौड़ तथा दक्षिण के ब्राह्मणों को पंच द्रविड़ कहा गया। ब्राह्मणों ने भूमि अनुष्ठान और शास्त्रों में अपनी शक्ति के माध्यम से आरंभिक मध्ययुगीन समाज में अपने ऊपरी स्थान पर कब्जा कर लिया था। जजमानी के माध्यम से ब्राह्मण वर्ग स्थानीय सामाजिक समुदाय से जोड़कर क्षेत्र में रहने लगा। यह वर्ग एक ऐसे सामंत के रूप में उभर कर सामने आया जिसे बिना कर चुकाए भूमि का आनंद लिया। ब्राह्मणों ने अपने लिए नए मार्ग खोलें। भूमि अनुदानों व प्रशासन ने ब्राह्मणों के लिए कृषि ,व्यापार ,प्रशासनिक और सैन्य सेवाओं जैसे गैर धार्मिक व्यवसायियों को अपनाने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया। कई उप जातियों का उदय हुआ। ब्राह्मणों का एक वर्ग अभिजात वर्ग से आगे चला गया और प्रादेशिक शक्तियों को प्राप्त कर क्षत्रिय वर्ग का दर्जा हासिल कर कुलीन शासक बना। देखा जा सकता है कि इस समय ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति को समाज में और अधिक मजबूत किया ना केवल धार्मिक बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पकड़ मजबूत की।
शासक जातियों का उभरना--
सत्ताधारी राजवंश ने इस समय में नए वंश को समाज में आने का रास्ता दिया इसलिए इस समय राजपूत, चाहमानो और प्रतिहारो जैसे नए राजवंश सामने आए। राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में बहुत से विवाद हैं परंतु सातवीं से आठवीं शताब्दी सी ई में राजपूत अपने चरम पर पहुंच चुके थे। राजपूतों के कई वंश बाद में उभर के आए जिनकी कुल संख्या 36 के आसपास बताई जाती है। भूमि अनुदान से भी नए वर्गों का उदय हुआ। इस समय जो भी शक्तिशाली या उभरती शक्ति प्रतीत होती वह एक अलग राजपूत वर्ग बन जाता।
वैश्यों का प्रसार अथवा व्यापारिक जातियां--
जातियों के प्रसार के कारण वैश्य वर्ण के भीतर कई व्यवसायियों का समावेश हुआ वैश्य अब व्यापारिक जातियों में परिवर्तित हो चुके थे कृषि कार्य में शूद्रों के विस्तार के बाद वैश्य नए अपनी पकड़ व्यापार में मजबूत की।
शुद्र का प्रसार--
प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में सबसे अधिक परिवर्तन शूद्रों में देखने को मिला इनकी संख्या बढ़ती चली गई शुद्र में भी 22 उच्चतम 12 मध्यम और 9 अधम श्रेणियों में विभाजित किया गया। जातियों की संख्या आगे चलकर हजारों तक बढ़ गई। गरीब व निचले तबके के सभी लोग धीरे-धीरे शूद्रों में शामिल कर दिए गए।
अछूत--
कभी-कभी शूद्रों को पांचवें वर्ण के नाम से भी जाना जाता है। यह सामाजिक संरचना में सबसे नीचे तबके के वर्ण माने जाते हैं। चांडाल अछूत का पर्याय बन गया। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में अस्पृश्यता का प्रचलन तेजी से चला। चांडाल और शवापक को अछूत माना जाता था और इनकी स्थिति के बारे में चीनी यात्री फाँ- सियन ने भी वर्णन किया है। इस समुदाय में मछुआरे कसाई ,जल्लाद ,शिकारी, चर्मकार आदि को शामिल किया जाता था।
दास-
दासता की प्रथा का अस्तित्व बहुत पुराना है गुलाम या दास किराए के नौकर से अलग हुआ करते थे अपने घरेलू कार्य और व्यक्तिगत सेवा हेतु दास को बेचा व खरीदा जाता था दास महिला व पुरुष दोनों हुआ करते थे दसों को किसी एक वर्ण से होने का कोई स्रोत इतिहासकारों को प्राप्त नहीं हुआ दासों को विवाह में दहेज के रूप में हस्तांतरित भी किया जाता था यह दासता की प्रथा कई बार स्वयं चुनी हुई होती थी
जनजातियां-
ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ इस समय जनजातीय समूह सामने आया। कई जनजातीय समूह ने समाज में रहकर अपना विकास किया पुरी का जगन्नाथ पंत आदिवासी एकीकरण का सबसे अच्छा उदाहरण है जो प्रारंभिक मध्ययुगीन उड़ीसा में गंगा वंश के संरक्षण से उभरा ।
मलेच्छ
मलेच्छ वे लोग थे जो ब्रह्मणवादी मूल्यों ,विचारों या मापदंडों को स्वीकार नहीं करते थे यह मुख्य रूप से विदेशी या देसी जनजातियां हुआ करती थी। ब्राह्मण इन्हें असामाजिक तत्व के रूप में दर्शाया करते थे।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि 700 से 1200 के मध्य समाज की जातियों में पूर्ण रूप से परिवर्तन आया एक जाति के अंदर भी बहुत सी उप जातियों का निर्माण हुआ। कुछ निम्न वर्ग की जातियां अपना विकास कर उच्च वर्ग में शामिल हो गई।
पल्लव वास्तुकला/स्थापत्य कला की क्रमागत उन्नति पर एक टिप्पणी लिखिए?
Write a note on the evolution of pallava architecture?
दक्षिण भारत में पल्लव राजवंश का उदय सातवाहन साम्राज्य के पतन के पश्चात प्रारंभ हुआ प्रारंभ में पल्लव सात वाहनों के अधीन थे अन्य वंश की तरह ही पल्लव ने भी अपनी स्वतंत्रता हासिल कर ली तथा छठी शताब्दी तक दक्षिण भारत की राजनीति में अपना विशेष स्थान बना लिया। पल्लवों की राजनीति के साथ-साथ उनकी उन्नत कलाकारी भी इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाया। पल्लव वंश के शासकों को कला से अत्यंत प्रेम था।सातवीं सदी से 10 वीं सदी तक दक्षिण में पलकों का शासनकाल रहा पल्लवों की वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कांची तथा महाबलीपुरम में पाए जाते हैं। मंदिर और मूर्तिकला के क्षेत्र में पल्लव शासकों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उन्होंने चट्टानों को काटकर और ईट पत्थर के बड़े विशाल और सुंदर मंदिरों का निर्माण करवाया।
पल्लव वास्तुकला की विशेषता-
पल्लवों की वास्तुकला में शिखर ,मंडप ,चार दीवारी, सिंह स्तंभ मंदिर के अंदर बने छोटे छोटे कमरे ,उपकरण तथा मूर्तियां सजावट आदि विशेषता के तौर पर देखी जा सकती है।
कांची का कैलाश मंदिर पल्लव वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है
पल्लव काल में वास्तु कला की विभिन्न शैलियां-
पल्लव काल में वास्तुकला की विभिन्न शैलियों के द्वारा मंदिरों का निर्माण कराया गया इन शैलियों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इन शैलियों का नामकरण पल्लव राजाओं के नाम रखा गया है।
महेंद्र वर्मन वास्तुकला की प्रथम शैली=
इस शैली का विकास 600 से 640 ईसवी तक में हुआ इस शैली के अंतर्गत मंदिरों को मंडप का एक नया नाम दिया गया इसका कारण यह है कि इसके अंतर्गत स्तंभ मंडप बनाए गए थे। यह ठोस चट्टानों को काटकर उन्हें सादगी के आकार में डाला गया इस शैली के उदाहरण भखकोंड़ मंडप देखने को मिलता है।
मामल्ल पल्लव वंश की दूसरी शैली=
मामल्ल शैली को नरसिंह वर्मन द्वारा चलाया गया नरसिंह वर्मन को मामल्ल की उपाधि धारण की थी तथा उन्होंने मल्लपुरम नगर बसाया था जिसके कारण उनके द्वारा बनाई गई शैली को मामल्ल शैली का नाम दिया गया इस शैली के अंतर्गत मुख्य रूप से दो प्रकार के मंदिर बनाए गए थे रथ तथा मंडप
इनके द्वारा बनाए गए मंडलों की संख्या दस है महेंद्र वर्मन शैली के तुलना में इस शैली में मंदिर अधिक विकसित और अलंकृत रूप से निर्मित किए गए।
इन मंदिरों में मुख्य रूप से पशुओं की मूर्तियां तथा देवताओं की मूर्तियां सर्वश्रेष्ठ रूप से निर्मित की जाती थी। यह मंदिर अन्य मंदिरों से भिंड थे इनमें 8 कोर वाले सिस्टम तथा दीवारों को अलंकृत करने हेतु राजा रानी की मूर्तियां लगाई गई है क्या मंदिर पांडवों के नाम पर बनाए गए लेकिन वास्तव में यह शिव मंदिर है।
इन मंदिरों के रखो की छत कुछ शिखर तथा कुछ पिरामिड आकार की निर्मित है।
राजसिंह पल्लवी की तीसरी शैली-
राज सिंह शैली का विकास पल्लव राजा नरसिंह वर्मन द्वितीय शासनकाल में किया गया था इन्होंने राजसिंह की उपाधि धारण की थी। इन्होंने ईटों की सहायता से मंदिर बनवाने पर जोर दिया इस शैली का सबसे प्रसिद्ध मंदिर कांची का कैलाश मंदिर जो ईंट और पत्थर से बना है। इस शैली में शिखर बहुत ऊंचे और मंडक्की छाते चपटी होती हैं।
अपराजित पल्लवों की चौथी शैली-
यहां पर लोगों की श्रेष्ठ शैलियों ने से आखरी शैली है। यह पल्लव राजा अपराजित के काल में निर्मित की गई इसलिए इसका नाम उनके नाम पर रखा गया। दिल्ली का सबसे प्रसिद्ध मंदिर तंजौर का राज मंदिर है। इस शैली के अंतर्गत स्तंभों के शीर्ष का अधिक विकास होता है मंदिर के शिखर ऊपर की और पतले होते चले जाते हैं तथा मंदिरों की शिखर की गर्दन पहले की अपेक्षा अधिक सुंदर दिखाई पड़ती है। समय बीतने के साथ इस शैली का स्थान चोल शैली ने ले लिया पर लोगों की वास्तुकला दक्षिण पूर्वी एशिया के मंदिरों में आज भी देखी जा सकती है।
भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न समय में अलग-अलग वास्तुकला प्रसिद्ध हुई उनमें से पल्लव वास्तुकला भी एक है। पल्लव की वास्तुकला में अलग-अलग शैलियों में मंदिरों का निर्माण किया गया था।
लगभग 700 से 1200 सी.ई. के दौरान लैंगिक संबंधों का वर्णन कीजिए?
Describe gender relations during the period of c 700 to 1200 C.E?
मध्ययुगीन काल के दौरान समाज व अर्थव्यवस्था में अनेक बदलाव देखने को मिले। उन्हीं बदलाव में से एक महिलाओं के बदलाव भी हैं। महिला की शिक्षा, संपत्ति अधिकार, विवाह नियम वादी चीजों में बदलाव देखने को मिले। समाज में आर्थिक राजनीतिक सांस्कृतिक बदलाव ने लैंगिक संबंधों को और जटिल रूप प्रदान किया। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर सुधार से लैंगिक संबंध को आसानी से सुधारा जा सकता है।
महिलाओं के संपत्ति अधिकार-
ब्राह्मणवादी विधि के अनुसार पुरुष उत्तराधिकारी ना होने पर महिलाओं को संपत्ति का अधिकार प्रदान किया जाता था महिला की संपत्ति के अधिकार से राज्य संपत्ति को जप्त कर ले इसकी संभावना भी कम हो जाती थी परंतु यह प्रचलन पूरे भारत में नहीं था गुजरात के राजा कुमारपाल का शिलालेख 1150 सी ई में विधवा के अधिकार को उसके पति राखी देखता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में स्त्री धन का महत्व अत्यधिक पड़ गया महिलाओं की सामाजिक स्थिति के अनुसार उनके अधिकार भी भिन्न-भिन्न हुआ करते थे। सामंतों के घरों की महिलाओं के पास अपने पूरे जीवन काल में बहुत सारी जागी रे हुआ करती थी इन जागीरो का प्रयोग वे अपने अनुसार धर्म-कर्म के कार्य आदि में किया करती थी चोल वंश की कई राजकुमारी व रानियों ने अपने संपत्ति के अधिकार का प्रयोग किया है। इसका अर्थ यह है कि महिलाओं के पास संपत्ति का अधिकार समाज में उनकी स्थिति के अनुसार हुआ करता था निम्न सामाजिक स्थिति वाली महिलाओं को कम अधिकार तथा उच्च स्थिति में महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान थे।
महिलाओं के विवाह नियम-
संपत्ति के अतिरिक्त घर के भीतर और बाहर स्त्रियों की स्थिति भी पुरुष लोगों की तुलना में उनके लैंगिक संबंधों को दर्शाता है।
विवाह के लिए महिलाओं की आयु कम कर दी गई वह पुरुष के लिए कोई आयु निर्धारित ही नहीं की गई a अल बिरूनी के अनुसार महिलाओं की शादी की उम्र 12 वर्ष बताई गई है। छोटी उम्र में विवाह और दहेज लेना समाज में अब आदर्श बन चुका था यह प्रथा पूरे भारत में तेजी से फैली निम्न वर्गों की तुलना में बालिकाओं के प्रति भेदभाव उच्च वर्ग में तीव्र हुआ पुनर्विवाह इस समय असंभव हुआ करता था। अनुलोम विवाह को प्रोत्साहित और प्रतिलोम विवाह का समाज में विरोध किया जाता था।
विधवा दाह या सती प्रथा-
प्रारंभिक मध्ययुगीन भारत में सती प्रथा बहुत अधिक देखने को मिलती है। यह प्रथा पितृसत्तात्मक समाज के लिए एक उपज का कार्य कर रही थी जहां पर महिलाओं को उनकी लैंगिकता के आधार पर समाज के लिए खतरा माना गया यह पहले केवल उच्च वर्ग और सैन्य अभिजात वर्ग में विशेष रूप से लागू हुआ। इस प्रथा को महिलाओं के समक्ष एक गौरव के कार्य की तरह प्रस्तुत किया जाता था। उत्तर पश्चिम भारत राजस्थान और मध्य प्रदेश के इलाकों में सती प्रथा के अत्यधिक साक्ष्य मिले हैं।
स्त्री शिक्षा -
महिलाओं को औपचारिक शिक्षा के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। महिलाओं के पास उचित शिक्षा और अच्छी तरह से विकास कि समाज का पूरी तरह अभाव था। अभिजात वर्ग की महिलाओं को शिक्षा और सैन्य प्रशिक्षण तक कुछ पहुंच थी लेकिन निम्न जाति की महिलाओं को उनकी जाति आधारित व्यवसाय शिल्प और लोक ज्ञान की पारंपारिक प्रशिक्षण दिया जाता था। महिलाओं को संस्कृत वार्तालाप से वंचित रखा जाता था। संस्कृत की अ साक्षरता समाज में महिलाओं की स्थिति को हास्य पर दिखाती है।
विधवापन-
कुछ पुराणों में विधवा पुनर्विवाह की अनुमति है परंतु मनुस्मृति के अनुसार इसे अस्वीकार किया गया है। विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार होना इस समय एक आम बात बन चुकी थी विधवाओं के सर मुंडन कराना उन्हें कठोर तपस्वी और ब्रह्मचारी रहने पर ही बल दिया जाता था सर के मुंडन की शुरुआत दक्षिण भारत में तमिल प्रथा से हुई जो आगे चलकर उत्तर भारत में ही फैली।
इस प्रकार से स्पष्ट है कि मध्ययुगीन काल में महिलाओं की स्थिति निम्न स्तर पर जाने लगी थी। ब्राह्मणवादी लोगों ने पितृसत्तात्मक समाज को बढ़ावा देना प्रारंभ कर दिया था महिलाओं की शिक्षा व अधिकार को पूरी तरह नियंत्रित कर लिया गया जिससे आगे चलकर यह स्थिति दुर्गति में परिवर्तित हो गई।
बादामी के चालुक्य पर एक निबंध लिखिए।0
Write an essay on the Chalukyas of Badami?
बादामी के चालुक्य का उदय उत्तरी कर्नाटक से हुआ उनकी राजधानी बादामी बीजापुर जिले में स्थित थी पल्लव राजा सिंह विष्णु अपने भूभाग का विस्तार कर रहे थे उसी समय बादामी के चालुक्य का उदय इतिहास में दिखाई पड़ता है। बादामी के चालुक्य के संस्थापक पुलकेशी प्रथम थे जिन्होंने बादामी के निकट पर्वत पर एक शक्तिशाली दुर्ग का निर्माण किया और अपनी विस्तारवादी गतिविधि करना प्रारंभ कर दिया।
बादामी के चालुक्य का विस्तार-
उन्होंने दक्षिण के कदंबों पश्चिम के कोंकण क्षेत्रों पर जीत हासिल की। पुलकेशिन द्वितीय के शासनकाल में बादामी के चालुक्य का क्षेत्र सबसे अधिक विस्तारपूर्वक रहा। कन्नड़ भाषी संपूर्ण क्षेत्र बादामी के अंतर्गत आ चुका था।
बादामी के चालुक्य ने दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तर भारत में भी अपनी पकड़ मजबूत की यह पकड़ सबसे बड़े प्रतिद्वंदी कन्नौज के हर्षवर्धन के विरुद्ध संघर्ष से मिली। हर्षवर्धन की पराजय के साथ बादामी के चालुक्य का विस्तार और बड़ा। कृष्णा तथा गोदावरी के डेल्टा पर बने तटवर्ती इलाके आंध्र पर चढ़ाई करने से पुलकेशिन द्वितीय का ढक्कन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण हो गया। चालुक्य को हार का सामना पल्लव राजा नरसिंह द्वारा करना पड़ा। यह संघर्ष आगे भी चले परंतु कोई निर्णायक फैसला नहीं हुआ।
चालुक्य की राज व्यवस्था-
राजा को प्रथम स्थान दिया जाता था राजधानी में राजा के अधीन सैनिक और राजवंशी परिवार के सदस्य रहा करते थे इनकी सुरक्षा के लिए सैनिकों की छोटी-छोटी टुकड़िया रखी जाती थी कोई स्थाई सेना का प्रावधान नहीं था। प्रमुख रूप से यहां भी ब्राह्मणवादी पद्धति चलती थी परंतु बादामी के चालुक्य बड़े ही लचीले ढंग के सम्राट थे उन्होंने केवल ब्राह्मणवादी लोगों को ही नहीं सभी को अपनाया सभी को स्थान दिया
बादामी के चालुक्य की कला-
चालुक्य वास्तु कला से प्रेम था उन्होंने हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया प्रारंभिक भारतीय मंदिर वास्तुकला में चालुक्य की कला को भी महत्व दिया जाता है इनका सबसे प्रसिद्ध मंदिर बादामी में rock-cut गुफा मंदिर है।
बादामी के चालुक्य राजस्व व्यवस्था -
बादामी के चालुक्य केंद्रितकृत राज्य नहीं था इतिहासकारों को मंत्रिपरिषद के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिली है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शाही परिवार के सदस्य ही बड़े-बड़े मंत्रियों के पद पर कार्य किया करते थे पूर्वी चालुक्य राजाओं ने इसे केंद्रीकृत किया और बादामी के चालुक्य की एक शाखा के रूप में उभर कर सामने आए। सम्राट का आदेश पत्थर व ताम्र पत्रों में लिखा जाता था। ग्राम प्रशासनिक व्यवस्था सबसे छोटी इकाई हुआ करती थी ग्राम स्तर के शाही प्रतिनिधि को गामुंडा कहते थे यह राजा एवं ग्रामीणों के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करता था करण ग्रामीण लेखक कार हुआ करता था गांव के बड़े लोगों को महाजन कहा जाता था अभिलेख में कई प्रकार के करों का भी उल्लेख किया गया है जैसे नमक स्वर्ण एवं नजराना जो राजा के अधिकारियों को बड़े-बड़े त्यौहार में दिया जाता था पुलकेशिन द्वितीय के हैदराबाद अनुदान पत्र से जानकारी मिली है कि गांव के साथ खजाना उप निधि आदि दिए जाते थे शाही परिवार के सदस्य और व्यापार संगठन भी मंदिरों को वस्त दान देते थे।
बादामी के चालुक्य की उपाधियां-
बादामी के चालुक्य अपने आप को अलग-अलग समय में अलग-अलग उपाधियां प्रदान की जैसे सत्याश्रय ,महाराजाधिराज, परमेश्वर और श्री पृथ्वी वल्लभ महाराज |
अंततः यह कहां जा सकता है की बादामी के चालुक्य ने अपने कार्यों द्वारा इतिहास में अपनी एक जगह बनाने में कामयाब रहे ।
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